Saturday 17 September 2011

वाह ! क्या ज़माना आ गया


बेवकूफों को अक़ल आ गयी 
जालिमों को रहम आ गया 
शजर में बेवक्त फूल आ गया
आसमान में अचानक बादल छा गया 
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

नैतिकता पर चल रहे लोग 
शर्म के मारे घरों में  दुबक गएँ 
गुंडे मवाली चोर उचक्कों 
के मन में नीतिओं का उबाल आ गया
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

चोरों ने चौकीदारी हथिया ली
चौकीदारों ने समाधी लगा ली
अब चोरी बंद हो गयी है 
बस चौकीदारी टैक्स अच्छा खासा हो गया 
वाह ! क्या ज़माना आ गया 

मंसूर 

Wednesday 14 September 2011

आदमी

हैवानियत की चादर ओढ़े हुए
इंसानियत सिखा रहा है आदमी |
क़त्ल और गारतगीरी को भी
आज सही ठहरा रहा है आदमी |
जंगल के कानून को फिर से
शहरों में ला रहा है आदमी |
आदमी की हैवानियत देख मंसूर
घबडा रहा है आज आदमी |

Thursday 11 August 2011

सच

क्या बात है जो आप नज़र नहीं आते
सिर्फ ख्वाबों में ही मुझे सताते
बड़े बहादुर बनते थे जब मिलते थे
सच सुनने के बाद नज़रें भी नहीं मिलाते


मंसूर

Saturday 30 July 2011

रिश्ते

सब ज़रुरत के रिश्ते हैं रिश्तों की ज़रुरत कहाँ किस को है
सब की परवाह मुझे ही है, मेरी परवाह कहाँ किस को है
है दुनिया में लगाने को गले बहुत लोग मेरे पास
क्या किसी को गला लगाने की फुर्सत मुझे भी है |





                                                           मंसूर    

ख़ामोशी

ख़ामोशी की भी अपनी जुबां होती है 
कुछ न कहते हुए भी बहोत कुछ कहती है 
अगर तुझे कहना न आये तो चुप रहना मंसूर
क्योंकि इससे लोगों में खुशफहमी बनी रहती है |

मंसूर 

Wednesday 13 July 2011

धर्म निरपेक्ष

वह किसी बड़े  देश का राजा था . उसके बारे में लोग कहते थे कि वह धर्म निरपेक्ष था . एक दिन वह अपने काफिले के साथ कहीं जा रहा था. रास्ते में उसे एक विशाल गिरजाघर मिला. गिरजाघर बहुत सुन्दर था . उसके मीनार में संगमरमर लगे थे . उसके फर्श और दीवारें सस्ते पत्थर के बने थे . 


उस गिरजाघर को देखकर राजा ने अपने मंत्रियों से कहा.  इस गिरजाघर के पास एक मंदिर बनाओ , जिसके दीवार , मीनार और फर्श पुरे संगमरमर के हों . आखिर लोग मुझे धर्म निरपेक्ष कैसे कहेंगे .  मेरे शासन में हर गिरजा घर के साथ साथ मंदिर होना चाहिए .


अब वहां मंदिर भी है. लोगों ने राजा के इस कृत्य के लिए उस राजा कि खूब जयजयकार की . आज भी उस देश में उसी राजा का राज है . 




मंसूर 

वेश्या

एक वेश्या थी . उसका एक नियमित ग्राहक था . काम से थक हार कर वह रोजाना उस वेश्या के पास अपनी भूख  मिटाने आता और अपनी भूख मिटाकर घर लौट जाता. अपनी मजदूरी का कुछ भाग उसे दे जाता.

एक दिन उसे मजदूरी नहीं मिला . उसके पास पैसे नहीं थे . लेकिन भूख लगी थी . वह वेश्या के पास गया और अपनी भूख मिटाई. जाने लगा तो उस वेश्या ने अपना मजदूरी मांगी लेकिन उसके पास पैसे नहीं थे . वेश्या ने अपनी मजदूरी के बदले उसके हाथ में बंधी हुई पुरानी दहेज़ कि घडी उतरवा ली .

वेश्या कहीं की . ग्राहक बडबडाया और चला गया . 




मंसूर 

प्रेमिका


मेरा दोस्त कहता है उसके  प्रेमिका
की आँखें बहुत नशीली हैं
मानो झांककर नाप ले उसमें
पूरे समंदर की गहराइयाँ   .

मेरा दोस्त कहता है उसके प्रेमिका
के गाल बहुत कोमल हैं
रुई से भी कोई मुकाबला नहीं
मानो थिरक रही हों हवा के हलके झोंकों पर .

मेरा दोस्त कहता है उसके प्रेमिका
के होंठ गुलाबी हैं
पंखुड़ियों की तरह गुलाब के
मानो सफ़ेद बादल में लाली छा गयी हो .

मेरा दोस्त कहता है  उसके प्रेमिका
की खुशबु बिलकुल अनोखी
कस्तूरी से भी ज्यादा मीठी
और हमेशा बरक़रार रहने वाली .

मेरा दोस्त कहता है उसकी प्रेमिका
कुदरत की एक कलाकारी है
जो युगों युगों में कभी कभी
विरले ही अवतरित होती हैं ज़मीन पर .

मेरी प्रेमिका में वैसा कुछ भी नहीं
सीधी साधी भोली भाली
बिलकुल काले बादलों का रंग
मानों खोदा ने उसे तिरस्कार के मूड में बनाया हो .

लेकिन उसकी चंचलता
उसकी बेबाकी
उसके नखरे
उसका अधिकार जमाने का मेरे ऊपर वो रवैया .

मुझे एहसास दिलाता है
मानो इश्वर ने उसे
मेरे लिए ही बनाया था
तिरस्कार से नहीं बलके बड़े प्यार से .

क्योंकि जानता था वह
रूप से मुझे क्या लेना देना
मैं तो पढ़ लेता हूँ मन को
वह मेरे मन की है और मैं उसके मन का .


मंसूर 

इज़हार


आज अचानक कुछ इकरार करने का दिल करने लगा है
अपने दिल के बोग्ज़ का इज़हार करने का दिल करने लगा है  
फिज़ा में मानों ग़ज़ल की समां बंध गयी  हो
ऐसा मुझे क्यों अचानक लगने लगा है  .

बिजली की कड़क में भी  नज़्म
के  मिठास  का  एहसास  होने  लगा  है
फूल  चाहे  कोई  भी  हो
गुलाब  ही  लगने  लगा  है

अब  दुश्मनों  से भी  दिल
लगाने   का  दिल  करने  लगा  है
पता  नहीं  क्यों
सब  फिर  से  अपना  लगने  लगा  है .

रात  में  जो  ख्वाब  मुझे  अक्सर
परेशां  करते  थे
अब  दिन  में  भी  उनसे
मुझे  उन्स  होने  लगा  है

मैं  नहीं  जानता  ये
बदलाव  क्यों  होने  लगा  है
सिर्फ वह    दिन याद  है  जब  मैं  तुमसे  मिला  था
उसी  दिन  से  मानो  सब  कुछ  बदलने  लगा  है .

मंसूर

बचपन

जब मैं बच्चा था
शरारत बहुत करता था
लोगों की डांट भी खानी पड़ती थी
अम्मीं के थप्पड़ भी बर्दाश्त करने पड़ते थे .


तब मैं सोचा करता था
बड़ा होऊंगा जल्दी
तब मुझे न खानी होगी
किसी की डांट न ही अम्मीं से डर होगा .


फिर मैं बड़ा हुआ
कोई डांटता तो नहीं अब
अम्मीं भी अब
संभाल कर बोलती हैं

लेकिन सुबह से शाम बहुत सारी
फ़िक्र होती है
कभी लोगों के ताने परेशान करते हैं
कभी रोटी की चिंता होती है .

कभी दोस्तों की मुस्कराहट में
मजाक उडाए जाने का एहसास होता है
सपने को पूरा न होते देख
बड़ी मायूसी सी लगती है .

अब रिश्तों से पहचान हो गयी है
रिश्तों को निभाना बड़ा मुश्किल लगता है
पता नहीं अब क्या करूं
काश मेरा बचपन लौट आता .

अम्मीं के थप्पड़ फिर से खाता
लोगों की डांट सुनकर मज़ा लेता
रिश्तों में काश बंधा न होता
सपनों की कोई परवाह न होती .

क्योंकि बचपन में रहना 
खुद एक सपना है
काश खोदाया मेरी सुन लेता
और मैं फिर से बचपन में लौट गया होता

फिर न तमन्ना करता बड़े होने की 
सिर्फ दुआ करता उस वक़्त के ठहर जाने की 
जब मैं बच्चा था 
शरारत बहुत करता था .

मंसूर

औरत





तुम माँ हो तुम बहन हो



तुम संगिनी हो तुम जीवनदायिनी हो

आधा संसार हो तुम 

तुम्हारे बग़ैर यह दुनिया बेमाना है



फिर भी सहती हो माँ होकर

बच्चों की पहरेदारी

बीवी होकर शौहर की 

चारदीवारी 



परदे में रहना पड़ता है तुम्हें

सब कुछ सहना पड़ता है तुम्हें

कभी बिकती हो तुम

बाज़ारों में 



किसी की जीनत हो तुम 

तो कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक जिस्म

एक ही रूप में न जाने

कितने किरदार निभाती हो तुम



तुम्हारे कोख से निकला हुआ तुम्हारा ही अंश

कितना ज़ुल्म करता है तुम पर 

कैसे सहती हो तुम यह सब 

कभी बीवी कभी बहन कभी माँ बनकर



ऐसा कैसे कर लेती हो तुम 

सहती हो इतनी सारी तकलीफें 

तुम को तो न छोड़ा भगवान ने भी

पूरी कायनात का टीस दे दिया तुम्हारे हिस्से में



लोगों को बेचारी क्यों लगती हो तुम

कोख में ही पता चलने पर 

तुम्हें वंचित कर दिया जाता है 

दुनिया में आने से 



तुम कुछ बोलती क्यों नहीं

क्यों मना नहीं कर देती हो

कोख में साँपों को पनपने से

क्यों नहीं मना कर देती हो वासना का शिकार बनने से



एक ही कारण मुझे नज़र आता

क्योंकि तुम औरत नहीं भगवान हो

जो सिर्फ देता है ज़रूरत में 

तुम बेचारी नहीं बलवान हो महान हो .



मैं तुम्हें सलाम करता हूँ 

हजारों बार नहीं करोड़ों बार

क्योंकि मेरे दुनिया में रहने की

तुम ज़मानत्दार हो.



मंसूर